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ज्ञान का द्वार खोलें, 12 का भाग 9

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बुद्ध, भले ही वे एक राजकुमार थे और उनके पास बहुत सारी सुख-सुविधाएं और विलासिता थी, आत्मज्ञान प्राप्ति के बाद, उन्होंने थोड़ी सी भी असुविधा महसूस किए बिना और बिना किसी खेद के एक भीख मांगने वाले भिक्षु का जीवन व्यतीत किया। यह भिक्षुत्व नहीं था जिसने उन्हें प्रसन्न किया, क्योंकि उस समय ऐसे बहुत से भिक्षु थे जिन्हें आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था,और इसलिए वे कलह, संघर्ष और अज्ञानता का जीवन जी रहे थे, प्रसिद्धि और धन के बीच संघर्ष कर रहे थे, और यहां तक ​​कि बुद्ध को भी नहीं बख्श रहे थे। कभी-कभी वे बुद्ध को भी हानि पहुंचाना चाहते थे। ऐसा इसलिए था क्योंकि उनका आंतरिक आनंद, उनका आंतरिक निर्वाण उनके दैनिक जीवन में प्रकट होता था - जिसने उन्हें हर उस परीक्षा के दौरान बनाये रखा जिसे मनुष्य सहन नहीं कर सकता। यहाँ तक कि कभी-कभी, अन्य धार्मिक भिक्षुओं के प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण के कारण, बुद्ध को कई महीनों तक भिक्षा नहीं मिल पाती थी, और उन्हें घोड़े के चारे पर रहना पड़ता था - तब भी, उन्हें कभी निराशा महसूस नहीं होती थी; वह अपनी भूख मिटाने या ज्यादा आराम पाने के लिए अपने राजा पिता से सोना मांगने के लिए कभी भी महल वापस नहीं भागते थें।

प्रत्येक साधक एक बार ज्ञान के उच्च स्तर पर पहुंच जाने पर इस निर्लिप्तता को जान लेता है। भले ही वे संसार में रहना पसंद करे और राजा, अधिकारी या कोई व्यवसायी बने, ताकि सामान्य जीवन जी सकें। लेकिन उनके दिल में अब प्रसिद्धि, नाम या लाभ की कोई इच्छा नहीं करते है। ठीक वैसे ही जैसे बुद्ध के समय में, कई लोगों ने उनकी निंदा की और उनके उपदेश देने में अनेक बाधाएं आईं, परंतु वे कभी विचलित नहीं हुए, उन्हें कभी अन्य लोगों के इन अपवित्र कर्मों का कष्ट नहीं उठाना पड़ा। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके हृदय में, वो पूर्णतया शून्य था - सभी इच्छाओं से शून्य, सभी क्रोध और आसक्तियों से शून्य। यद्यपि बाह्य रूप से वे अन्य मनुष्यों के समान ही व्यवहार करते थे, फिर भी वे साधारण अर्थों में साधारण मनुष्य नहीं थे।

और बुद्ध के कई गृहस्थ शिष्यों भी थे जिन्होंने पहले की तरह संसार में ही रहने का निर्णय लिया था, लेकिन स्वयं के भीतर वे आध्यात्मिक रूप से उच्च स्तर की उपलब्धि रखते थे। विमलकीर्ति की तरह या जैसे क्वान शि यिन बोधिसत्व - अवलोकितेश्वर बोधिसत्व। यद्यपि वह एक साधारण आम व्यक्ति और सुन्दर वस्त्र व आभूषणों से सुसज्जित एक सुन्दर स्त्री के रूप में प्रकट हुई थीं, फिर भी वह एक बुद्ध हैं।

तो हम जानते हैं कि अभ्यास करने के दो तरीके हैं। एक तो यह कि हम संसार का त्याग कर दें और साधना करने के लिए किसी एकांत स्थान पर चले जाएं। दूसरा यह कि हम इस संसार में रह सकें एक प्रबुद्ध संत बने और अपना कर्तव्य निभाना जारी रखे। क्योंकि जंगल और पहाड़ों हमें आत्मज्ञान और हृदय परिवर्तन नहीं दे सकते। आध्यात्मिक अभ्यास पद्धति के बिना, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कहां हैं या हम क्या करते हैं, हम फिर भी अज्ञानता में ही रहते हैं। बाघ-, शेर-, चित्त-लोग, वे जंगल में रहते हैं। कोई भी उन्हें परेशान नहीं करता। उनके जीवन के लिए कोई बाधाएं नहीं हैं, उन्हें आक्रामक बनाने के लिए कोई सांसारिक दबाव नहीं है। फिर भी, वे पैदा होते हैं आक्रामक, रहते हैं आक्रामक, और मरते हैं आक्रामक ही। और बुद्ध के कुछ शिष्यों या अन्य संतों के कुछ शिष्यों, वे संसार में ही रहें, लेकिन वे प्रबुद्ध थे, वे दयालु थे, और वे संत सदृश थें।

और इस दुनिया में विभिन्न धर्मों के बीच तथा एक ही धर्म के भीतर भी कई “पवित्र”युद्ध होते हैं। यह अज्ञानता के कारण है। अतः यदि हम आत्मज्ञान की कुंजी नहीं जानते तो स्थान, वातावरण या धर्म हमारी सहायता नहीं कर सकते। भले ही हम आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए अपने कपड़े बदल लें और इस संसार की हर चीज़ त्याग दें, लेकिन अगर हमें रास्ता नहीं पता [या] हम नहीं जानते कि कैसे जाना है, फिर भी यह बेकार है।

ब्रह्माण्ड में नियम हैं और हमें उनका पूर्णतः पालन करना चाहिए। हम जो भी करना चाहते हैं, हमें कानून, विनियमन का पालन करना होगा, यदि हम सफल होना चाहते हैं। हमारे शरीर में अलग-अलग कार्यों के लिए अलग-अलग अंग होते हैं। यदि हम यह जान लें कि इनमें से कौन सा आध्यात्मिक ज्ञान के लिए है, तो हम इसका उपयोग कर सकते हैं और ज्ञानवान बन सकते हैं। अन्यथा, यदि हम गलत स्थान का उपयोग करते हैं, गलत विधि का अभ्यास करते हैं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कितने समय तक ऐसा करते हैं, इससे हमें कुछ भी लाभ नहीं होगा।

बुद्ध ने भी ज्ञान प्राप्ति से पहले गलतियाँ की थीं। इसका मतलब है कि उन्होंने कई विविध तरीकों का पालन किया था, जिसमें तपस्या भी शामिल थी - महीनों तक भूखे रहें, जिससे उनके शरीर और सोचने की क्षमता और यहां तक ​​कि उनकी आध्यात्मिक शक्ति को भी नुकसान पहुंचा। [यह] छह वर्षों की गलतियों के बाद ही था कि उन्हें अंततः यह एहसास हुआ कि उन्हें मध्यम मार्ग, अर्थात साधारण मार्ग का अभ्यास करना चाहिए, और तब शायद उन्हें सही मास्टर से मिले और सही विधि का अभ्यास किया। इसलिए, बोधि वृक्ष के नीचे केवल 49 दिनों के बाद, उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हुआ।

लेकिन शायद उन्हें ऐसा करना पड़ा क्योंकि वे बुद्ध थे; उन्हें ऐसा इसलिए करना पड़ा ताकि वे हमें गलतियाँ दिखा सकें, ताकि वैसा हम न करें। या शायद आत्मज्ञान प्राप्ति से पहले, इस संसार में जन्म लेते समय उन्हें भी अन्य लोगों की तरह कर्म के नियम से गुजरना पड़ा हो। क्योंकि उन्होंने अपनी युवावस्था के दौरान समाज और अपने राष्ट्र के लिए कुछ भी योगदान दिए बिना एक विलासितापूर्ण जीवन का आनंद लिया था। शायद, इसीलिए, उन्हें इस प्रकार की भूख-पीड़ा सहनी पड़ी - अतीत की क्षतिपूर्ति करने के लिए, हालांकि उन्होंने ऐसा जानबूझकर नहीं किया था।

मैं सिर्फ इतना ही कहूंगी कि "शायद", इसलिए यदि मैंने कोई गलत बयान दिया हो तो कृपया मुझे माफ करें। खैर, जब हम बुद्ध को निर्वाण अवस्था में देखेंगे तो हमें इसका पता चल जाएगा। जो मैं जानती हूं, उन्हें मैं आपको साबित नहीं कर सकती। इसलिए, मैं आपको आमंत्रित करती हूं कि आप आएं और स्वयं इसे सिद्ध करें - क्या बुद्ध को कर्म से गुजरना पड़ा था, या क्या उन्हें हमारे ज्ञान के लिए ऐसा करना पड़ा था।

मैं आपको बहुत सी बातें बताना चाहती हूं, लेकिन हमारा समय सीमित है। इसके अलावा, कई चीजें ऐसी हैं जिन्हें मैं अपनी सांसारिक भाषा में नहीं बोल सकती। मैं आपको केवल मार्ग बता सकती हूं, ताकि आप स्वयं अपनी बुद्धि खोलकर, अपनी बुद्ध की आंख खोलकर उन्हें जान सको। और तब आपको सब कुछ पता चल जाएगा, बिना किसी मास्टर या शिक्षक के बताने के। और जो ज्ञान प्राप्त करते हैं आप वह स्थायी है - यह आपका है, यह प्रत्यक्ष ज्ञान है।

इसीलिए… धन्यवाद। अच्छी बात है; यह अच्छी बात है कि आपने ताली बजाई। कम से कम कोई तो जाग जाएगा और सो नहीं जाएगा। लेकिन शायद कोई व्यक्ति समाधि में हो और आपने उन्हें जगा दिया हो। लेकिन खैर, अब समय आ गया है। इसलिए, सभी को जाग जाना चाहिए।

pPhoto Caption: सच्चे विश्वास के साथ, हम हर जगह अच्छे से विकसित होते हैं!

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